संत कबीर भारतीय भक्ति आंदोलन के महान कवि और समाज सुधारक थे। उन्होंने धार्मिक आडंबरों, जातिवाद, बाह्य पूजा और कर्मकांड का खुलकर विरोध किया और एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ प्रेम, करुणा और आध्यात्मिकता का राज हो।
उनकी रचनाओं में यह प्रश्न बार-बार उठता है — “सच्चा संत कौन होता है?”
आइए, जानते हैं कबीर की दृष्टि में सच्चे संत के गुण, व्यवहार और पहचान क्या हैं।
📿 कबीर की संत-परिभाषा
कबीर के अनुसार, सच्चा संत वह होता है:
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जो ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानता हो,
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जो नामजप और साधना से जीवन में आत्मबोध प्राप्त कर चुका हो,
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और जो बिना दिखावे के दूसरों को भी मोक्ष के मार्ग पर ले जाए।
कबीर कहते हैं:
“संतन से सब दिन भला, जो आपन ठौर न चाल।
जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।”
यहाँ संत वह है जो गहराई से सत्य की खोज करता है — न कि ऊपरी लिबास में रमता है।
🌿 सच्चे संत के गुण – कबीर की दृष्टि में
1. निर्लोभी और निरहंकारी
सच्चा संत कभी नाम, धन, आश्रम या पद की लालसा नहीं करता।
“जाका गुरु है गूंगा, चेला है जड़धाम।
अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडाम॥”
कबीर ने ऐसे गुरुओं/संतों की आलोचना की जो स्वयं अज्ञानी हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते हैं।
2. सहज और प्रेममय जीवन
कबीर के अनुसार, सच्चा संत वह है जो अपने भीतर प्रेम की आग जलाए रखता है और समाज में प्रेम का संचार करता है।
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”
3. साधनापरक जीवन
कबीर दिखावटी पूजा-पाठ के विरोधी थे। उनके अनुसार, जो संत निरंतर नामस्मरण, ध्यान और स्व-अनुशासन के मार्ग पर चलता है, वही सच्चा संत है।
“मन के मते न चलिए, मन भ्रम का भुलाव।
गुरु के वचन सम्हारिए, मनसा वाचा भाव॥”
4. भेदभाव से ऊपर
सच्चा संत जाति, धर्म, संप्रदाय या बाह्य रूपों से परे होता है।
कबीर कहते हैं:
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥”
यहाँ कबीर स्पष्ट कर रहे हैं कि संत की जाति नहीं, ज्ञान ही उसकी पहचान है।
❌ झूठे संतों से सावधान
कबीर ने अपने समय के पाखंडी साधुओं, मौलवियों और पंडितों की तीखी आलोचना की।
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥”
यानी सिर्फ हाथ में माला लेकर घूमने से कोई संत नहीं बन जाता। मन को बदलना जरूरी है।
🔍 निष्कर्ष
कबीर के अनुसार, इस संसार में सच्चा संत वह है:
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जो प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलता है,
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जो दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, आत्म-कल्याण के लिए साधना करता है,
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और जो भक्ति, ज्ञान और सेवा के संतुलन से समाज को दिशा देता है।
कबीर की दृष्टि में सच्चा संत वही है जो “निर्गुण परमेश्वर” को पहचान कर उसका अनुभव कर चुका हो — और अब दूसरों को भी उस अनुभव की ओर ले जा रहा हो।