🔱 प्रस्तावना
जब भी कोई सनातन धर्म की चर्चा करता है, एक प्रश्न बार-बार उठता है —
“क्या सनातन धर्म मूर्ति पूजा को मानता है?”
इस प्रश्न के उत्तर में केवल “हाँ” या “नहीं” कहना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि सनातन धर्म का दर्शन गहरा, वैज्ञानिक और बहुआयामी है।
इस लेख में हम जानेंगे कि मूर्ति पूजा का अर्थ क्या है, इसका महत्व क्या है और सनातन परंपरा में इसका स्थान क्यों है।
🌼 मूर्ति पूजा का अर्थ क्या है?
“मूर्ति पूजा” का अर्थ केवल किसी पत्थर की आकृति को पूजना नहीं है, बल्कि यह एक माध्यम है —
👉 ईश्वर के निराकार स्वरूप को साकार रूप में अनुभव करने का।
👉 यह एक प्रतीकात्मक साधना है, जिससे ध्यान, भक्ति और चेतना केंद्रित होती है।
📖 वेदों और उपनिषदों में मूर्ति पूजा
सनातन धर्म के मूल ग्रंथ जैसे वेद, उपनिषद और भगवद गीता ईश्वर को “निराकार, निर्विकार, सर्वव्यापी” बताते हैं। लेकिन साथ ही ये ग्रंथ यह भी स्वीकार करते हैं कि मानव मन को ध्यान केंद्रित करने के लिए एक प्रतीक की आवश्यकता होती है।
🪔 भगवद गीता (अध्याय 12) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
“जो मनुष्य मूर्त रूप में मेरी भक्ति करते हैं, वे भी मुझे प्राप्त करते हैं।”
🛕 मूर्ति पूजा का वैज्ञानिक और मानसिक पक्ष
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ध्यान केंद्रित करना आसान बनाता है
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निराकार ईश्वर पर ध्यान लगाना कठिन होता है, पर मूर्ति के माध्यम से मन स्थिर होता है।
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मानव मन दृश्य का उपासक है
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मन को आकार, रंग, रूप की आवश्यकता होती है। मूर्ति उसी का साधन है।
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आस्था और भावनात्मक जुड़ाव
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माता-पिता की फोटो देखकर भी भावनाएँ जागती हैं, वैसे ही ईश्वर की मूर्ति से भी।
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🪔 क्या मूर्ति में भगवान होते हैं?
सनातन धर्म यह नहीं कहता कि पत्थर ही भगवान है, बल्कि यह मानता है कि
“सच्चे भाव और श्रद्धा से जब किसी मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, तो वह ईश्वर का प्रतीक बन जाती है।”
👉 इसलिए मंदिरों में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा होती है — जिससे वह केवल एक “पाषाण” न रहकर “पूज्य” बन जाती है।
✨ मूर्ति पूजा और व्यक्तिगत अनुभव
हर भक्त को कभी-न-कभी भगवान की मूर्ति के सामने
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आँखों में आँसू
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मन की शांति
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और आत्मा की स्पंदना का अनुभव होता है।
क्या यह केवल एक पत्थर से संभव है? नहीं, यह उस चेतना से जुड़ने का अनुभव है जो मूर्ति के माध्यम से जागृत होती है।
🙏 निष्कर्ष
सनातन धर्म में मूर्ति पूजा केवल एक परंपरा नहीं, एक साधना है।
यह हमारे भीतर के भाव, श्रद्धा और आत्मा को ईश्वर से जोड़ने का माध्यम है।
जैसे कोई संगीत वाद्ययंत्र केवल लकड़ी का टुकड़ा नहीं होता — जब वह सुरों से भरता है, तब वह “संगीत” बनता है — वैसे ही जब मूर्ति श्रद्धा से भरती है, तब वह “ईश्वर” का साक्षात् रूप बन जाती है।
🕉️ “मूर्ति को मत देखो, उसके पीछे छिपे भाव को समझो — वही सनातन का मार्ग है।”